Saturday, November 28, 2009

सीमा से परे के स्वरुप का परिचय करवा कर असीम प्यार लुटाया
स्वामी विवेकानंद ने विराट के स्वर से जन जन को जाग्रत करवाया

युग युग से अनंत के स्वरुप, मानव मन को छू जाते
इस तरह वो हमें अपनाते या शायद हम उन्हें अपनाते

Friday, November 27, 2009


साया उजाले के साथ हमारे सम्बन्ध का गतिमान परिचय धरती तक पहुंचाता जाता है
या कुछ ऐसा है की हमारे सम्मान में उजाला थोड़ी जगह छोड़ कर धरती तक जाता है
परछाई कभी कभी सच से ज्यादा सुंदर लगती है
और अपनी सुन्दरता से हमें यहाँ वहां ठगती है

Thursday, November 26, 2009

अब तो वो सूखे पत्ते भी नहीं हैं, निशान हरियाली के क्यों पोंछ देता है कोई

पुल संवाद नही चाहता, कहता है, चलो निकल जाओ पार
में इसीलिए हूँ, जो आये, उधर जाये लेकर मेरा आधार

Wednesday, November 25, 2009

एक ही समय, कई रंगों वाली रोशनी होती है, चलती है, साथ हमारे
एक ही समय, देखते हैं हमें, सूरज, धरती, चाँद सितारे
तस्वीर में दिखाई कोई भी दे, कुछ भी हो आकार, आकृति
तस्वीर सचमुच हर बार, होती तो है, उजाले की ही

Tuesday, November 24, 2009

जो थोड़े से पत्ते रह गए शेष, उनके पास भी गया बुलावा
शाखाओं का पत्तों से जो रिश्ता है, क्या वो है एक छलावा

पत्तों में जो हरा रंग है, वह मुस्कुराता है
या इस रंग से होकर जीवन सुनाता है वह
जिससे जीवन की यह रंग बदलती अनवरत गाथा है

Monday, November 23, 2009

जाने से पहले, पत्तों ने रंग बदलते हुए, दिखा दिया अपना संपूर्ण सौंदर्य
ललक है सृष्टि के कण कण में, मिल जुल कर पूरे दृश्य को, ओर सुंदर, ओर समन्वित बनायें


ओ अनंत, तुम हर क्षण अनंत चित्र बनाते मिटाते हो
अपनी महिमा का सौन्दर्य यूँ ही दिखाते छुपाते हो

Sunday, November 22, 2009

बरसात में भीगती कार, छम छम बूंदों की झंकार,
दूर कहीं बजता सुन्दरता का मद्धम सितार
सड़क के उस छोर पर सूरज का घर है,
इससे पहले कि वो घर बदल ले अपना,
चलें अपना घर छोड़ कर उसकी तरफ़

Saturday, November 21, 2009

चलते चलते तय होती है दूरी, बदलता है रास्ता
पर कई बार लगता यूँ है कि वैसा का वैसा है सब कुछ
छोटी छोटी बूँदें भी छुपा सकती हैं पूरा दृश्य, याद रहे, किसी को छोटा मत समझ लेना

Friday, November 20, 2009

हरियाली की चौखट से होकर, जो लम्बी सड़क आती है, क्या वह भी हरियाली होती है हमेशा
कई जगहों पर शहर बड़ा उदासीन लगता है, जैसे उसे कोई परवाह ही नहीं
आप रुकें तो रुकें, चलें तो चलें

Thursday, November 19, 2009

ढलते ढलते क्या ये कहता है सूरज, अब घूमना फिरना छोडो, चलो फटाफट घर पहुँचो अपने अपने

Wednesday, November 18, 2009

दर्पण में, मैं नहीं सीढियां हैं, देखता हूँ जब स्वयं को,
ऊपर जाने का रास्ता दिखाई दे जाता है अनायास ही

Tuesday, November 17, 2009

उजियारे की परछाई हमारा पता पूछ कर आयी है
दे रही है निमंत्रण, एक नए सपने की गोदभराई है


लम्बी छोड़ी इमारतों को अर्थ देने वाला एक छोटा सा व्यक्ति
जब चलता है सड़क पर, बौना दिखाई देता है, अपनी ही बनाई इन इमारतों की तुलना में

Monday, November 16, 2009

आसानी से कर लेते हैं पार पुल को, नहीं जानते किस नदी पर से होकर गुजर गए हैं हम
ना नदी से परिचय, न पुल का आभार, क्यूं दूर दूर तक जाकर भी, अपने में बंदी से हैं हम
अशोक व्यास

Sunday, November 15, 2009

खिड़की से जो दिखता है, उस सच मे और बहार जाकर जो दिखता है उस सच मे, अन्तर सही, सम्बन्ध तो है कुछ
और कुछ नहीं, तो यही सही की यहाँ भी मैं हूँ और वहां भी मैं हूँ



है सफर मेरा बड़ा, छोटी सी हूँ पर एक कर देती हूँ, अपनी यात्रा से, आसमान को धरती से
बूँद हूँ मैं

Saturday, November 14, 2009

फिर मौसम बदलेगा


तो फिर कौन है जो भाल पर उजियारे का तिलक कर जाता है
किसकी आहट पर कोई बार बार खिड़की के पास चला आता है
कौन है वो, जो हर दिन दिखाई देती जगह में नयापन जगाता है



क्यों ऐसा होता है, पत्ते जब बिछुड़ते हैं शाखाओं से, हमारे अन्दर भी उतर आती है उदासी ज़रा सी
शाखाएं बनी रहती हैं इस उम्मीद के साथ की फिर मौसम बदलेगा, फिर पत्ते आयेंगे
हम भी बने हैं, चिर वसंत की प्रतीक्षा में, अपनी अपनी जड़ो से जुड़े होकर भी ठूंठ से लगते हुए

पहले से तय नहीं होता ट्रैफिक, कोई नहीं जानता कब कौन सी गाड़ी कहाँ से आएगी
और कब कौन सा क्षण, अंधेरे के पार से उभरे उजाले का चित्र बन जाएगा


सीढियां
वहीं रहती हैं
क्या सोचती होंगी
चढ़ते उतरते लोगों के बारे में
पत्ते भी जाने से पहले रंग बदल लेते हैं अपना
और हम तो शायद तैयार ही हैं हमेशा
जहा हैं वहां से चल देने के लिए